Thursday 24 October 2013

आवाह्न

चलो ना यार , मिलकर आसमां नापते हैं  I
काँपते हाथों  की, अब ऊंगलियाँ थामते हैं II

चेहरे पर हर किसी की
चाँद खिला के दम लेंगे ,
राहें कितनी भी मुश्किल हो -
पहला कदम हम लेंगे ,

खोलकर दरवाजे बाहर का रुख भाँपते हैं  I
चलो ना यार , मिलकर आसमां नापते हैं  II

कदम संभाल कर रखने हैं
मैंने माना है ,
पर क्या तुमने अब तक -
खुद को नहीं जाना है ,

दर्द देख कर  क्यूँ   तेरे  ये होश हाँफते हैं   I
चलो ना यार , मिलकर आसमां नापते हैं  II



 © नील कमल  07 Sept. 2011, 07:00 PM

लुईत (वर्ष  01 ,अंक  01 )में प्रकाशित 


Tuesday 21 May 2013

खालीपन 

" एक ग्लास अगर खाली है 
   तो उसमें क्या भरा है ? "

- पूछ रहा था एक विद्वान 
   गाँव में 
   घूम -घूम कर लोगों से ,


" अगर ग्लास खाली है  
   तो उसमें भरा है-
   उसका  खालीपन ,
    उसकी तन्हाई  "
- एक साहित्यिक  बोला I

" नहीं !
   अगर ग्लास खाली है
    तो 
    उसमें हवा भरी है  "
- विज्ञान का एक विधार्थी  चहका I


"पागल है  क्या ?
अगर  खाली ही है
तो फिर भरा क्या होगा -
ख़ाक ! "
- भीड़ बोली I


"सूरत है मेरे महबूब की !
  देखो उसका गोल - सा चेहरा ,
  उसकी नीली - नीली आंखें "
- एक आशिक गुनगुनाया I

उत्तर बदलते रहे  ,
विवाद बढ़ता गया  ,
मार -पीट की नौबत आ गयी ...

विद्वान ने जब चाहा 
बीच - बचाव करना 
भीड़ चिल्लाई -
" उटपटांग सवाल पूछता है 
मारो इसे ! "


सुना है -
सबने उसे मार  डाला  I


प्रश्न अब भी यथावत है I


हाँ !
ग्लास का खालीपन 
अब 
लोगों में भरा है I



                                        © नील कमल    18/05/2013    11:30 AM











Sunday 5 May 2013




कशमकश



कल  शहर मे बारिश हुई थी .....

पहली  बूंद  की  छुअन –
यूँ   लगा  जैसे
तुम्हारे  गीले  गेशू
मुझसे  आ लिपटे  हो ......

अनवरत होती  बारिश  की  छम- छम
जैसे  नुपूर पहने तुम
मेरे पास आ रही  हो 



शबनम - स्नात  दरखतों  पर चमकती
मार्तंड  की  किरणे
जैसे  चान्दनी रात मे
तेरी  बलिया हिली   हो

धवल आसमा में  सज़ा
चमकीला  इंद्र-धनुष
चटकीले रंगो  की  साड़ी   में 
जैसी  तुम लगती  हो......

कशमकश  में    हूँ   मै-
कि इस शहर के बारिश मे
कोई  जादू  है

या फिर
    मुझे मोहब्बत हो गयी है .....?

                                        - नील कमल 
           ( यूको टावर ; अंक 26  में प्रकाशित )













Friday 8 February 2013

रोटी और सिक्के

बच्चों की परवरिश बेहतर हो , 
सोच - सोच -
बाप अपना जिस्म जलाता रहा .
पर जब बच्चे बड़े हुए 
सिक्के उसे परदेश ले गये .....


आज बड़का कमाता है -
उसकी थाली में रोटी है ,
घर पैसे भी भेजता है -
बाप की थाली में भी रोटी है ,

पर रोटी का टुकड़ा 
किसी की हलक से 
नीचे नहीं उतरता ...


बाप 
खूंटे पर बंधी 
गैया को बछड़े संग 
नाद में मुँह डुबाते देखता है 
उसका कलेजा मुँह को आता है ...
इसे देख 
माँ रोने लगती है ..


और बड़का सोचता है -
थाल में पड़ी रोटी 
सब साथ मिलकर तोड़े -
परमात्मा ऐसा दिन दिखाए 
तो गंगा नहाऊ ..
अब बहुरिया 
सुबकने लगती है .....


दोनों जबरदस्ती 
रोटी के टुकड़े 
मुँह में ठुसते  हैं .....


दोनों फुसफुसाते हैं - 
" इन मुए सिक्कों के मुँह आग लगे " ......





                                                                               - नील कमल 
                                                                                             07/02/2013      10:00 PM